Monday 10 November 2014

Women Got The Right To Be Make-Up Artist In Film Industry | महिलाओं को मिला फिल्म इंडस्ट्री में मेक-अप आर्टिस्ट बनने का अधिकार

Women Got The Right To Be Make-Up Artist In Film Industry

महिलाओं को मिला फिल्म इंडस्ट्री में मेक-अप आर्टिस्ट बनने का अधिकार

Nov 11, 2014, 09:32AM IST

(ये हैं चारू जिन्होंने चुपके से किया था रावण फिल्म में अभिषेक का मेकअप।)
 
नई दिल्ली. ये फिल्म इंडस्ट्री में महिला मेकअप आर्टिस्ट के हक की नहीं, बल्कि महिलाओं से भेदभाव के खिलाफ जीत है। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की भी ऐसी ही टिप्पणी थी। इस जीत के पीछे बड़ा रोल था चारू खुराना का। जो खुद मेकअप आर्टिस्ट थीं। जानिए, इस लड़ाई की पूरी कहानी...
 
कैलिफोर्निया से मेकअप का कोर्स करने वाली चारू खुराना का सपना था बॉलीवुड में बतौर मेकअप आर्टिस्ट काम करना। इसके लिए उन्होंने 2009 में  सिने कॉस्ट्यूम्स मेकअप आर्टिस्ट एंड हेयर ड्रेसर एसोसिएशन (सीसीएमएए) की सदस्यता के लिए आवेदन किया।  लेकिन आवेदन खारिज हो गया। चारू ने एसोसिएशन को फिर पत्र लिखा और आवेदन खारिज करने की वजह पूछी। उन्हें एसोसिएशन के महासचिव की ओर से जल्द ही इसका लिखित जवाब भी मिला।

महासचिव हेनरी जे मार्टिस ने लिखा- 1955 में संगठन के बनने के बाद से आज तक किसी महिला को मेकअप आर्टिस्ट कार्ड नहीं दिया गया है। क्योंकि महिलाओं को यह कार्ड दिया गया तो पुरुष बेरोजगार हो जाएंगे। उन्हें परिवार को चलाने में मुश्किलें आएंगी।
 
इस जवाब से चारू सकते में थीं। चारू ने बताया- जो महिला मेकअप आर्टिस्ट इस दिशा में कोशिश भी करती, तो उसे धमकियां दी जाती थीं। इसके बाद चारू ने फेडरेशन ऑफ वेस्टर्न सिने एम्प्लॉइज़ की सदस्यता ली। ताकि विज्ञापनों और म्यूजिक एल्बम के लिए काम कर सकें। लेकिन कुछ ही दिनों बाद फेडरेशन को धमकी मिली कि चारू की सदस्यता रद्द करो, वर्ना कड़े कदम उठाए जाएंगे।इस तरह का भेदभाव कोलकाता, बेंगलुरू, चेन्नई, हैदराबाद में भी था। 
 
चारू ने कहा कि मैं जब चेन्नई में कमल हसन की फिल्म में मेकअप आर्टिस्ट थीं, तो चेन्नई के एसोसिएशन ने धमकी दी कि इसे बाहर निकालो। लेकिन कमल हसन के प्रभाव की वजह से वे मुझे निकाल नहीं पाए। हालांकि मुझे वहां काम करने के लिए बतौर डोनेशन एसोसिएशन को 26,500 रुपए देने पड़े। इसके बाद मैंने मणिरत्नम की रावण में चुपके से काम किया।
 
चारू बताती हैं-मैं इस भेदभाव से तंग आ चुकी थी। मैंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अंतत: सोमवार को मुझे सुकून मिला। जब सुप्रीम कोर्ट ने 59 साल पुरानी इस  भेदभावपूर्ण परंपरा को खत्म कर दिया। कोर्ट ने सीसीएमएए के नियमों को असंवैधानिक करार दिया। कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि हम 2014 में रह रहे हैं न कि 1935 में। इस तरह की परंपरा एक दिन भी जारी नहीं रहनी चाहिए।

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