Friday 1 August 2014

Editorial On-एक 'अनजान भारतीय' के मशहूर बनने की कहानी ,नीरद चौधरी - भारत के सबसे विवादास्पद लेकिन क़ाबिल लेखक और खुशवंत सिंह के गुरू , नेहरू ने नीरद पर आत्मकथा 'द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन अननोन इंडियन' के लिए उनके ऊपर भारत विरोधी होने का तमग़ा चस्पाँ कर पूरे भारत में लिखने पर प्रतिबंध लगाया, 1970 में इंग्लैंड जाने के बाद वो भारत कभी नहीं लौटे और उन्होंने आख़िर तक अपने भारतीय पासपोर्ट को सरेंडर नहीं किया.

Editorial On-एक 'अनजान भारतीय' के मशहूर बनने की कहानी

नीरद चौधरी - भारत के सबसे विवादास्पद लेकिन क़ाबिल लेखक और खुशवंत सिंह के गुरू ,  नेहरू ने नीरद पर आत्मकथा 'द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन अननोन इंडियन' के लिए उनके ऊपर भारत विरोधी होने का तमग़ा चस्पाँ कर पूरे भारत में लिखने पर प्रतिबंध लगाया, 1970 में इंग्लैंड जाने के बाद वो भारत कभी नहीं लौटे और उन्होंने आख़िर तक अपने भारतीय पासपोर्ट को सरेंडर नहीं किया.

नीरद चंद्र चौधरी ने अपनी आत्मकथा 'द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन अननोन इंडियन' को ब्रिटिश साम्राज्य को समर्पित किया था. तब से उनके ऊपर भारत विरोधी होने का तमग़ा चस्पाँ हुआ, जो ताउम्र नहीं उतरा.


नीरद सी चौधरी

नीरद चौधरी को भारत के सबसे विवादास्पद लेकिन क़ाबिल लेखकों में माना जाता है. 'द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन अननोन इंडियन', 'कॉन्टिनेंट ऑफ़ सर्से', 'पैसेज टु इंग्लैंड' जैसी पुस्तकों के लेखक नीरद चौधरी को पश्चिम में ज़रूर सराहा गया लेकिन भारत में उनको वो सम्मान कभी नहीं मिल पाया जिसके वो हक़दार थे.

तथाकथित भारत विरोधी विचारों के कारण उनकी बहुत आलोचना हुई लेकिन उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की. खुशवंत सिंह उन्हें अपना गुरू मानते थे और कहा करते थे कि नीरद बाबू को इस बात में बहुत आनंद आता था जब ग़लत कारणों से उनकी आलोचना की जाती थी.
ये सही है कि 1970 में इंग्लैंड जाने के बाद वो भारत कभी नहीं लौटे और वहीं ऑक्सफ़र्ड में बस गए लेकिन ये बहुत कम लोगों को पता है कि उन्होंने आख़िर तक अपने भारतीय पासपोर्ट को सरेंडर नहीं किया.
नीरद चौधरी की पंद्रहवीं पुण्यतिथि पर  बता रहे हैं उनके व्यक्तित्व से जुड़े कुछ अनजान पहलुओं को.

पढ़े पूरी विवेचना


नीरद सी चौधरी
नीरद चंद्र चौधरी ने अपनी आत्मकथा 'द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन अननोन इंडियन' को ब्रिटिश साम्राज्य को समर्पित किया था. तब से उनके ऊपर भारत विरोधी होने का तमग़ा चस्पाँ हुआ, जो ताउम्र नहीं उतरा.
लेकिन वीएस नॉयपॉल ने इस किताब के बारे में कहा था कि यह संभवत: भारत-ब्रिटिश समागम के बाद आने वाली सबसे बड़ी किताब है. अंग्रेज़ी साहित्य के कई हलक़ों में इसे भारतीय लेखकों द्वारा अंग्रेज़ी में लिखी पाँच सर्वकालिक महान कृतियों में रखा जाता है.
खुशवंत सिंह ने लिखा है कि जिन बुद्धिजीवियों को उन्हें अपना दोस्त बनाने का मौक़ा मिला है... उनमें नीरद चौधरी शायद सबसे ऊपर हैं. दुनिया की हर चीज़ के बारे में उनका ज्ञान, अब किवदंती बन गया है.
नीरद चौधरी अक्सर प्लेटो के उस कथन को उद्धृत किया करते थे कि वो जीवन जिस पर सवाल नहीं उठाए जाएं, वो जीने लायक़ नहीं हैं. उन्हें उनके लेखन के अलावा उनके अनोखेपन और लीक से हट कर जीवन जीने के उनके जुनून के लिए भी याद किया जाता है.
जब वो अपने दिल्ली के घर से सूट, टाई और सोलर टोपी पहन कर अपने दफ़्तर के लिए निकलते थे तो उनके पड़ोस के शरारती बच्चे जॉनी वाकर, जॉनी वाकर चिल्लाते हुए उनका पीछा करते थे. नीरद पागलों की हद तक समय के पाबंद थे.
उनके सबसे बड़े पुत्र और बाद में मशहूर फ़ोटोग्राफ़र बने ध्रुव चौधरी याद करते हैं, ''वो कभी-कभी हमसे बहुत ज़्यादा उम्मीदें लगाते थे. जो कुछ भी हम देखते थे या सुनते थे, अगर हम उसे पूरी तरह से याद नहीं रख पाते थे, तो वो बहुत ग़ुस्सा होते थे. हमारे यहाँ खाना खाने के तीन समय हुआ करते थे. सुबह साढ़े आठ बजे नाश्ता, एक बजे दोपहर का खाना और सात बजे रात का खाना. अगर हम भाइयों को एक मिनट की भी देर होती थी तो हमें खाना नहीं मिलता था.''

नायाब कलाकृतियाँ और रेकार्ड्स जमा करने का शौक़


नीरद सी चौधरी
सीमित आय होने के बावजूद नीरद बाबू को दुनिया की नायाब कलाकृतियों, अमूल्य किताबों, बेहतरीन शराब और ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स जमा करने का शौक़ था. उनके इस शौक़ का ख़ामियाज़ा उनकी पत्नी को भुगतना होता था क्योंकि घर का बजट बुरी तरह से गड़बड़ा जाता था.
ध्रुव चौधरी कहते हैं, ''वो लंदन से एक मैगज़ीन मंगवाया करते थे जिसका नाम था ग्रामोफ़ोन. वहाँ से जानकारी लेकर वो रेकॉर्ड्स की मशहूर दुकान बेवन में रिकॉर्ड्स का ऑर्डर दिया करते थे. ब्राम्स, बीथोवन और मोत्ज़ार्त के सभी रेकॉर्ड्स घर के पते पर मंगवाए जाते थे. वो मेरी माँ को इसके बारे में बताते भी नहीं थे. जब रेकार्ड घर आते थे तो वो उनको किताबों के पीछे छिपा देते थे. एक बार जब वो घर आए तो उन्होंने देखा कि दो एल्बम जिन्हें उन्होंने किताबों के पीछे छिपाया था, बैठक के दीवान पर पड़े हुए हैं. मेरी माँ ने जब उनसे पूछा कि ये कहाँ से आए तो नीरद बग़ले झांकने लगे.''
ध्रुव चौधरी बताते हैं कि साल 1939 में जब उनका छोटा भाई पृथ्वी बीमार हुआ तो वो अपनी माँ के साथ अपने चाचा के यहाँ चले गए. जब वो वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि बैठक में एक बहुत बड़ा ग्रामोफ़ोन रखा है जिसका हॉर्न छह फ़ुट ऊँचा था.
नीरद ने बताया कि ये दुनिया का सबसे अच्छा ग्रामोफ़ोन है जिसे उन्होंने लड़ाई में जा रहे एक अंग्रेज़ अफ़सर से तीन सौ रुपए में ख़रीदा था.

वाइन का चिटका ग्लास


नीरद सी चौधरी के बेटे
जानेमाने ब्रॉडकास्टर और पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग ट्रस्ट के प्रमुख राजीव मेहरोत्रा ने नीरद चौधरी पर एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाई थी जिसकी काफ़ी चर्चा हुई थी.
जब वो ऑक्सफ़र्ड में पढ़ते थे, तो नीरद अक्सर उन्हें अपने यहाँ बुलाया करते थे.
राजीव याद करते हैं, ''कभी-कभी वो मुझसे पूछते थे कि तुम लंदन बहुत जाते हो तो अपनी आँखें खुली रखते हो या नहीं. ये बताओ कि ऑक्सफ़र्ड और लंदन के बीच कितनी नदियाँ पड़ती है? न सिर्फ़ विचारों बल्कि चीज़ों की बारीकी पर भी उनकी नज़र रहती थी.''
राजीव कहते हैं, ''जब मैं पहली बार उनके घर गया था तो उन्होंने मुझे वाइन पीने की सारी बारीकियाँ सिखाई थीं. मैं इस मामले में गंवार था. मुझे याद है कि जब पहली बार उन्होंने मुझे वाइन पीने को दी थी तो मैं काफ़ी नर्वस था. उन्होंने कहा कि अगर तुम इंग्लैंड में रहोगे और अगर तुम्हें अंग्रेज़ों से टक्कर लेनी है तो तुम्हें उनके कल्चर में उनसे बेहतर होना होगा."
उन्होंने कहा, "मैं इतना घबराया हुआ था कि वाइन के ग्लास को, जो कि कट ग्लास का बना हुआ था, जब मैंने अपने मुंह से लगाया तो वो मेरे होठ के दबाव से चिटक गया. उन्होंने उस चीज़ को नोटिस ही नहीं किया और बहुत प्यार से मेरे हाथ से टूटा ग्लास लेकर दूसरा ग्लास पकड़ा दिया. मेरी थोड़ी हिम्मत बढ़ी और मैंने अपने जीवन में वाइन का पहला सिप लिया.''

वाइन की पहचान


नीरद सी चौधरी
वाइन के बारे में उनके बेटे ध्रुव भी एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हैं. एक बार आकाशवाणी के तत्कालीन महानिदेशक कर्नल लक्ष्मणन नें उन्हें अपने यहाँ एक पार्टी में बुलाया.
उन्होंने पूछा कि क्या आप शेरी पीना पसंद करेंगे? नीरद ने उनसे पूछा कि कौन सी शेरी है आपके पास? लक्ष्मणन ने कहा ये तो मुझे पता नहीं.
नीरद ने अपने बेटे की तरफ़ इशारा किया और कहा कि इसे चखकर बताओ कि ये है क्या?
ध्रुव ने सकुचाते हुए उसे चखा और कुछ देर सोचने के बाद कहा, ये आमिन्टिलाडो 1937 लगता है. सब लोग ये सुनकर चौंक गए. उस समय ध्रुव की उम्र मात्र 13-14 साल थी.

101 साल की उम्र में भी सक्रिय


नीरद चौधरी
आनंद बाज़ार पत्रिका की लंदन संवाददाता रहीं श्रवणि बसु को कई बार नीरद बाबू का इंटरव्यू लेने का मौक़ा मिला. बाद में तो वो उनकी पारिवारिक दोस्त बन गईं थीं.
श्रवणि याद करती हैं, ''एक तरफ़ तो वो पूरे बंगाली थे. घर में हमेशा धोती कुर्ता पहनते थे. लेकिन जब बाहर जाते थे तो पूरी तरह से बदल जाते थे. बोलर हैट, सूट और छड़ी... और यही उनके व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक पक्ष था कि दोनों संस्कृतियों को आत्मसात करने का उनको बहुत शौक़ था."
उन्होंने कहा, "वो बहुत रसीले आदमी थे. हमेशा सवाल पूछते रहते थे. पहले पूछते थे कौन सा विषय पढ़ा है? जब हम कहते थे इतिहास तो हमसे लगातार इतिहास पर क्विज़ मास्टर की तरह सवाल पूछते थे और उनमें से अधिकतर सवालों के हमारे पास कोई जवाब नहीं होते थे. संगीत में भी उनकी बहुत दिलचस्पी थी और सबसे बढ़कर जीवन में उनकी इतनी दिलचस्पी थी वो आश्चर्यजनक थी... 101 साल की उम्र तक उनका दिमाग़ पूरी तरह से काम कर रहा था.''

सीलिंग फ़ैन से चिढ़


नीरद चौधरी
नीरद चौधरी को सीलिंग फ़ैन और रेडियो से बहुत चिढ़ थी. दिल्ली की चिलचिलाती गर्मी के बावजूद उन्होंने अपने फ़्लैट में पंखा नहीं लगवाया था जबकि वो सबसे ऊपर की मंज़िल में रहा करते थे.
बहुत कम लोगों को पता है कि उन्हें कड़ी से कड़ी गर्मी में भी पसीना नहीं आता था. पंखा न इस्तेमाल करने के लिए वो अजीब सा कारण दिया करते थे कि इससे उनके काग़ज़ उड़ जाते हैं.
रेडियो उन्हें इसलिए नहीं पसंद था कि वो रेडियो में काम करते थे और नहीं चाहते थे कि घर में भी उसी की चर्चा हो. लेकिन जब बीबीसी की ख़बर का समय होता था तो वो अपने बेटे को अपनी मकान मालकिन के पास भेजते थे, जिसके पास रेडियो हुआ करता था और उनका बेटा प्रमुख ख़बरों को लिखकर उनको दिया करता था.

जबरन रिटायरमेंट


नीरद चौधरी
नीरद चौधरी को उनकी आकाशवाणी की नौकरी से सिर्फ़ इसलिए जबरन रिटायर किया गया था क्योंकि उन्होंने अपनी आत्मकथा को ब्रिटिश साम्राज्य को समर्पित किया था और ये फ़ैसला भारत सरकार में उच्चतम स्तर पर लिया गया था.
ध्रुव चौधरी बताते हैं कि राष्ट्रीय अभिलेखागार में प्रधानमंत्री क्लिक करें जवाहरलाल नेहरू का वो नोट सुरक्षित है जिसमें उन्होंने लिखा है कि अगर इन्हें भारतीय लोगों पर इतना भरोसा नहीं है तो उन्हें कहीं और चले जाना चाहिए.
बेरोज़गार हो जाने के बाद भी नीरद चौधरी ने अपने स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं किया. खुशवंत सिंह ने अपनी किताब 'नॉट ए नाइस मैन टु नो' में एक दिलचस्प संस्मरण लिखा है.
वे लिखते हैं, ''एक बार वित्त मंत्री टीटीके कृष्णमाचारी ने मुझे बुलाकर अनुरोध किया कि मैं नीरद को मनाऊँ कि वो पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थियों की कठिनाइयों के बारे में लेखों की एक सीरीज़ करें और इसके लिए वो जितना भी पैसा मांगें उन्हें दिया जाए. मैंने टीटीके को याद दिलाया कि नीरद पर तो पूरे भारत में लिखने पर प्रतिबंध लगाया गया है. उन्होंने कहा कि ये प्रतिबंध उठा लिया जाएगा.''
क्लिक करें खुशवंत सिंह लिखते हैं, ''मैंने नीरद को ये कहकर तुरंत बुलवा भेजा कि मेरे पास आपके लिए शुभ समाचार है. नीरद ने मेरी बात सुनते ही कहा, तो भारत सरकार ने मेरे ऊपर से प्रतिबंध उठा लिया है. मैंने कहाँ जी हाँ. नीरद दो मिनट चुप रहे और फिर धीमे से बोले... लेकिन मैंने भारत सरकार से प्रतिबंध उठाने का फ़ैसला अभी नहीं किया है. वो चुपचाप उठे... अपनी सोलर टोपी उठाई और कमरे से बाहर चले गए.'' 

You like My Reporting?

Did this Post help you? Share your experience below.
Use the share button to let your friends know about this update.




No comments:

Post a Comment