Friday 15 August 2014

15AUG2014 स्वतंत्रता दिवस: नरेंद्र मोदी के भाषण की 15 बातें,...आज़ादी के बाद क्या बोले नेहरू और जिन्ना?...भारत की समस्याओं के लिए नेहरू कितने ज़िम्मेदार?

15AUG2014 स्वतंत्रता दिवस:

नरेंद्र मोदी के भाषण की 15 बातें...कुछ ऐसा भी हुआ स्वतंत्रता दिवस समारोह में!

आज़ादी के बाद क्या बोले नेहरू और जिन्ना?...भारत की समस्याओं के लिए नेहरू कितने ज़िम्मेदार?


 शुक्रवार, 15 अगस्त, 2014 को 12:10 IST तक के समाचार



शुक्रवार को स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार की प्राथमिकताओं का ख़ाका पेश किया.
क़रीब एक घंटे के भाषण में उन्होंने टॉयलेट और सफ़ाई अभियान से लेकर बलात्कार, साम्प्रदायिक हिंसा और देश के विकास समेत कई मुद्दों पर बात की.

आइए जानते हैं, उनके भाषण की अहम बातें:

1- मोदी ने महिलाओं के खिलाफ़ अपराधों को ख़त्म करने पर ज़ोर दिया. इसके लिए उन्होंने माता पिता से अपने बच्चों की अच्छी परवरिश करने को कहा.
2-प्रधानमंत्री ने साम्प्रदायिकता और हिंसा का मुद्दा उठाते हुए इसे ख़त्म करने की अपील की. मोदी ने कहा, "ख़ून से धरती लाल ही होगी, और कुछ नहीं मिलेगा. दस साल में हम विकसित समाज की ओर जाना चाहते हैं."
3- कन्या भ्रूण हत्या की समस्या पर मोदी ने कहा, "बेटों की आस में बेटियों की बलि मत चढ़ाइए. राष्ट्रमंडल खेलों में बिटियों ने भारत का गौरव बढ़ाया है."

लाल क़िला
4- देश के विकास के लिए मोदी ने एक बार फिर पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल पर बल दिया.
5- मोदी ने कहा कि प्रधानमंत्री जनधन योजना के माध्यम से ग़रीबों को बैंक अकाउंट से जोड़ा जाएगा और हर कार्ड धारक को डेबिट कार्ड और एक लाख की बीमा सुरक्षा मुहैया कराई जाएगी.
6- प्रधानमंत्री ने देशवासियों और युवाओं से 'स्किल इंडिया' के ज़रिए विकास को मिशन बनाने का संकल्प लेने को कहा. उन्होंने विदेशों में रह रहे भारतीयों को भी देश के निर्माण में भागीदारी का निमंत्रण दिया.

महात्मा गांधी
7-मोदी ने कहा कि दो अक्टूबर से देश में सफ़ाई का अभियान शुरू किया जाएगा. उन्होंने कहा कि सांसद को सांसद निधि से एक साल तक स्कूलों में टॉयलेट बनाने पर खर्च करने करने का संकल्प लें.
8- प्रधानमंत्री ने कहा कि देश को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने के लिए संकल्प लेना होगा और देश को आयातक से निर्यातक देश बनाना है.
9-उन्होंने ई गवर्नेंस, मोबाइल गवर्नेंस और टूरिज़्म से विकास को गति देने की बात भी कही.

भारतीय संसद
10-मोदी ने संसद के नाम से संसद ग्राम योजना की घोषणा भी की. इस योजना के तहत हर सासंद को अपने क्षेत्र में एक गांव को आदर्श ग्राम बनाया जाएगा और इसका ब्लू प्रिंट 11 अक्तूबर को जारी किया जाएगा.
11- मोदी ने योजना आयोग की जगह नई संस्था बनाने की घोषणा करते हुए कहा, "कभी कभी पुराने घर की मरम्मत पर ख़र्चा ज्यादा आता है और संतुष्टि नहीं होती. फिर लगता है कि नया ही घर बना दिया जाए."
12- उन्होंने कहा कि ग़रीबी उन्मूलन का संकल्प लेना होगा. दक्षिण एशियाई देश मिलकर ग़रीबी उन्मूलन का लक्ष्य निर्धारित करें.
13- विदेश नीति पर बोलते हुए उन्होंने सभी पड़ोसी देशों से रिश्ते बेहतर करने पर बल दिया.
14- मोदी ने पर्यटन पर ख़ास तौर से ज़ोर दिया.
15- मोदी ने ख़ुद को प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि प्रधान सेवक बताया.

कुछ ऐसा भी हुआ स्वतंत्रता दिवस समारोह में!



नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पहली बार लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित किया. स्वतंत्रता दिवस समारोह में कुछ ऐसे खास पल थे, जो बेहद दिलचस्प, रोचक थे. मोदी ने इस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कुछ मायनों में इतिहास रचा है. यहां पढ़िए लाल किले पर स्वतंत्रता दिवस समारोह के दौरान के कुछ दिलचस्प वाक्ये.

 1.बुलेट प्रूफ केबिन- प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस समारोह में अपना भाषण बुलेट प्रूफ केबिन में नहीं दिया. मोदी ने करीब एक घंटे का अपना भाषण बुलेट प्रूफ केबिन में देने की बजाय खुले में दिया.
2. बिना लिखा भाषण- प्रधानमंत्री मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बन गए हैं, जिन्होंने लालकिले से बिना लिखा हुआ भाषण दिया. इससे पहले देश के प्रधानमंत्री लालकिले पर पढ़कर भाषण देते थे.
3.सुरक्षा घेरा तोड़ा- प्रधानमंत्री मोदी ने भाषण देने के बाद सुरक्षा घेरा तोड़ते हुए बच्चों से मुलाकात की. इससे पहले यह कभी नहीं देखा गया है कि लालकिले पर मौजूद बच्चों से देश का कोई प्रधानमंत्री मिला हो.
4.प्रतिभा आडवाणी ने गमला किया ठीक- स्वतंत्रता दिवस समारोह में लाल कृष्ण आडवाणी मोदी की बेटी प्रतिभा उनके साथ पहली लाइन में बैठी हुईं थी. पास में एक गमला गिरा हुआ था, जिसे प्रतिभा ने खुद अपने हाथों से ठीक किया.
5.जावड़ेकर भाषण करते रहे नोट- प्रधानमंत्री मोदी लालकिले से बिना पढ़े भाषण देते रहे और सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर मोदी का पूरा भाषण नोट-पैड पर नोट करते रहे.
6. मोदी की पगड़ी- प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस समारोह में जो पगड़ी पहन रखी थी, वो पगड़ी मोदी को गुजरात के प्रभारी और राजस्थान से जुड़े वरिष्ठ नेता ओम प्रकाश माथुर ने तैयार कर उन्हें पहनाया था. केसरिया रंग की इस पगड़ी को जोधपुर के त्रिपुलिया बाजार से खरीदा गया और विमान से दिल्ली पहुंचाया गया. पीएम आवास से इस पगड़ी को लेकर एक सहायक माथुर के घर ले गया.
7.वंदे मातरम- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना भाषण खत्म करने के बाद वंदे मातरम के नारे लगाए. लालकिले की प्राचीर से बीते सालों में यह देखने को नहीं मिला है कि किसी प्रधानमंत्री ने लालकिले से भाषण खत्म होने के बाद वंदे मातरम का नारा लगाया हो.

आज़ादी के बाद क्या बोले नेहरू और जिन्ना



भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 14 अगस्त 1947 की आधी रात को जो भाषण दिया था उसे 'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी' के नाम से ही जाना जाता है. पाकिस्तान के बनने से कुछ क्षण पहले मोहम्मद अली जिन्ना ने भी अपने देशवासियों को संबोधित किया था.
इन दोनों भाषणों के अंश:

जवाहर लाल नेहरू



आज हम दुर्भाग्य के एक युग का अंत कर रहे हैं और भारत पुनः खुद को खोज पा रहा है. आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मन रहे हैं, वो महज एक कदम है, नए अवसरों के खुलने का. इससे भी बड़ी जीत और उपलब्धियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं.
भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ितों की सेवा करना. इसका अर्थ है ग़रीबी, अज्ञानता, और अवसर की असमानता को मिटाना. हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही इच्छा है कि हर आँख से आंसू मिटे. शायद ये हमारे लिए संभव न हो पर जब तक लोगों कि आँखों में आंसू हैं तब तक हमारा काम ख़त्म नहीं होगा.
आज एक बार फिर वर्षों के संघर्ष के बाद , भारत जागृत और स्वतंत्र है.
भविष्य हमें बुला रहा है. हमें किधर जाना चाहिए और हमें क्या करना चाहिए, जिससे हम आम आदमी, किसानों और कामगारों के लिए आज़ादी और अवसर ला सकें, हम ग़रीबी, हम एक समृद्ध, लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील देश बना सकें. हम ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं को बना सकें जो हर आदमी-औरत के लिए जीवन की परिपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सके?
कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता जब तक उसके लोगों की सोच या कर्म संकीर्ण हैं.

मोहम्मद अली जिन्ना


मुझे मालूम है कि कई लोग भारत के विभाजन - पंजाब और बंगाल के बंटवारे से सहमत नहीं हैं. लेकिन अब जबकि इसकी स्वीकृति मिल गई है अब हम सब का फ़र्ज़ है कि जो समझौता हो गया है उसे अंतिम और अटूट माने.
विभाजन होना ही था. इस बारे में दोनों समुदायों की चिंता - जहाँ कहीं भी एक समुदाय बहुमत में है और दूसरा अल्पसंख्यक -समझी सकती है.
सवाल ये है कि क्या जो हुआ उसके विपरीत क़दम उठाना संभव था?
सरकार का सब से पहला कर्तव्य क़ानून व्यवस्था को बनाकर रखना है, ताकि देशवासियों की संपत्ति, जीवन और धार्मिक आस्थाएं सुरक्षा रखी जा सकें.
हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों तरफ ऐसे लोग हैं जो बंटवारे को नापसंद करते हैं. मेरी राय में इसके इलावा कोई और समाधान नही था. मुझे उम्मीद है भविष्य मेरी राय के पक्ष में फ़ैसला देगा.
एक संयुक्त भारत का विचार कभी सफल नहीं होता. मेरे विचार में इसका अंजाम भयानक होता. मेरा ख़्याल सही है या ग़लत, ये वक़्त बताएगा.
समय के साथ-साथ हिन्दू - मुलमान, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के फ़र्क ख़त्म होंगे. क्योंकि मुसलमान की हैसियत से आप पठान, पंजाबी, शिया या सुन्नी हैं. हिन्दुओं में आप ब्राह्मण, खत्री, बंगाली और मद्रासी हैं. अगर ये समस्या नहीं होती तो भारत काफ़ी पहले आज़ाद हो जाता.
आप देखेंगे कि वक़्त के साथ देश के नागरिक की हैसियत से हिन्दू, हिन्दू नहीं रहेगा मुसलमान, मुसलमान नहीं रहेगा, धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं क्यूंकि ये हर व्यक्ति का व्यक्तिगत ईमान है, बल्कि सियासी हैसीयत से.

भारत की समस्याओं के लिए नेहरू कितने ज़िम्मेदार...



भगत सिंह भारतीय स्वाधीनता संग्राम की उग्र विचारधारा के समर्थक माने जाते थे.

स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह ने 1928 में इक्कीस साल की उम्र में एक छोटा-सा निबंध लिखा जिसमें वो पंजाब के नौजवानों के लिए आदर्श नेता की खोज करते हैं.
उनके सामने दो नेता थे जिन्हें तब भारत के युवा अपना हृदय सम्राट मानते थे, एक सुभाषचन्द्र बोस और दूसरे जवाहरलाल नेहरू. बल्कि दिलचस्प तरीक़े से वे शिक्षाविद् साधू वासवानी का भी किंचित विस्तार से ज़िक्र करते हैं जिनका संगठन, “भारत युवा संघ” भगत सिंह के मुताबिक़ तब के युवा वर्ग में ख़ासा लोकप्रिय था.

वासवानी के बारे में वे कहते हैं कि उनके विचारों का सार एक वाक्य में यह है, “वापस वेदों की ओर लौट चलो.”
भगत सिंह वासवानी को दकियानूसी विचारों का पोषक कहते हैं. फिर वे लिखते हैं कि सुभाष का मानना है कि भारतीय राष्ट्रीयता की जड़ें ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में हैं और उनके मुताबिक़ हिन्दुस्तान का दुनिया के लिए एक विशेष संदेश है.
वे भी वासवानी की तरह हर वस्तु को पहले से भारत में मौजूद मानते हैं. इसके उलट क्लिक करें जवाहर लाल नेहरू हैं जो अपने देश को दूसरे देशों के मुक़ाबले बहुत ख़ास मानने को तैयार नहीं.
भगत सिंह सुभाष को राजपरिवर्तनकारी और नेहरू को युगांतरकारी मानते हैं. वे पंजाब के नौजवानों को कहते हैं कि अगर उन्हें विचार की आवश्यकता है तो उन्हें नेहरू के साथ लग जाना चाहिए.

नेहरू व्यवस्था के प्रतीक



भारत को आज़ादी मिलने के दो दिन बाद दिल्ली में नेहरू
आज यह छोटा सा लेख पढ़कर यकीन करना कठिन होता है कि इसे क्लिक करें भगत सिंह ने लिखा होगा. भगत सिंह को अपना नायक मानने वाले भी इसे उनकी नादान भावुकता का परिणाम मानते हैं. हालांकि यहाँ भगत सिंह का पक्ष बिलकुल स्पष्ट है: वे मात्र भावुक राष्ट्रवाद की जगह की एक विचारशील परिवर्तनकारी विचार की खोज में नेहरू की तरफ झुकते दिखाई देते हैं.
यह इतिहास की विडंबना है कि नेहरू कालान्तर में युगांतरकारी के स्थान पर व्यवस्था के प्रतीक बन गए और व्यवस्था परिवर्तन के लिए नेहरू को ध्वस्त करना अनिवार्य शर्त बन गयी. लोहिया ने भारतीय जनतंत्र में नवजीवन के रास्ते में नेहरू को सबसे बड़ी बाधा माना और उसे हटाने के लिए वे किसी हद तक जाने को तैयार थे.
नेहरू के जन्म के एक सौ पचीसवें और उनकी मृत्यु के पचासवें साल भारत ने उस विचार को सत्ता देने का निर्णय किया है जिसे नेहरू भारत के विचार के लिए घातक मानते रहे और जिसके ख़तरे से देश की जनता को आजीवन सावधान करते रहे.
नेहरू के साथ भारत का प्रेम प्रसंग ज़्यादा लंबा नहीं चला. उन्हें भगत सिंह की शहादत नसीब नहीं होने वाली थी, न वे सुभाष की तरह एक अश्वत्थामा का जीवन पाने वाले थे. उनके गुरू की तभी हत्या कर दी गई जब उनके विचारों के संदर्भ में उनके देशवासियों को ख़ुद को साबित करना था और उनसे पीछा छुड़ाने के लिए उन्हें संत की पदवी दे दी गई जो सांसारिकता से परे होता है.
इस तरह गांधी अप्रासंगिक बना दिए गए थे. नेहरू को अपने समवर्तियों में सबसे अधिक सांसारिक माना जाता है. जय प्रकाश नारायण जैसे उनके मित्र संन्यासी हो गए थे.

भारत की समस्याएं और नेहरू



नेहरू ने 1959 में तिब्बत से भागे दलाई लामा और उनके समर्थकों को भारत में शरण दी
नेहरू भारतीय राष्ट्रवाद के रोमांटिक दौर से बहुत बाद तक जीवित रहने वाले थे. उनके गुलाब की आभा एक नए राष्ट्र के निर्माण और राज्य को गढ़ने के दौरान उठने वाली गर्द से मंद पड़ने को अभिशप्त थी.
यह दिलचस्प है कि भारत की हर समस्या के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार माना जाता है: वह कश्मीर का अनसुलझा प्रश्न हो या उत्तरपूर्व के तनाव हों, निरक्षरता हो या हिन्दू वृद्धि दर, भारत में समाजवाद का आने से इनकार, यहां तक कि साम्प्रदायिकता के कीटाणु के लिए भी वही उत्तरदायी माने गए हैं.
क्लिक करें वंशवाद के तो वे असंदिग्ध अपराधी माने गए हैं, उनके अध्येता इतिहासकार भले कुछ और कहते रहें.
नेहरू को पराई पश्चिमी आधुनिकता के पौधे को भारत की भूमि में ज़बरन रोपने का भी अपराधी माना जाता है जिसने इस भूमि की सम्पूर्ण पोषक क्षमता को सोख लिया और इसे बंजर बना दिया.
अनेक विद्वान मानते हैं कि उनके चलते भारतीयों में अपनी परंपरा को लेकर एक विचित्र प्रकार की हीनता और अपराधबोध भर गया जिसकी विकृत अभिव्यक्ति साम्प्रदायिकता में हुई.
नेहरू को गांधी की तरह ही स्त्रैण माना जाता है. वे युद्धभीरु भी माने गए हैं. नेहरू के जीवनकाल और उसके बाद के पचास वर्षों में नेहरू के प्रतिमा भंजन और नेहरू घृणा के अनेक स्रोत रहे हैं. परिणाम इस पचासवीं पुण्य तिथि के वर्ष में सामने है.
नेहरू के प्रति श्रद्धालु रवैया अपनाने की ज़रूरत नहीं. विवेकपूर्ण तरीक़े से उनकी चुनौतियों को समझने की आवश्यकता है.

गांधी और टैगोर


नेहरू
नेहरू ने अमरीका और रूस से अलग रास्ता बनाने की कोशिश की और गुट निपरेक्ष देशों का संगठन बनाया
नेहरू निःसंकोच भाव से ख़ुद को गांधी युग की सन्तान कहते थे. वे मूलतः अहिंसा में विश्वास करने वाले अंतर्राष्ट्रीयतावादी थे. इस मामले में वे रवीन्द्रनाथ टैगोर के काफ़ी क़रीब थे.
वे आधुनिकता के मूल सिद्धांतों में यकीन करते थे और वैज्ञानिक चेतना के हामी थे लेकिन विज्ञानवाद को लेकर उनके मन में संदेह था. वे उसके अंधविश्वासी अनुयायी होने को तैयार न थे.
नेहरू गांधी की तरह धार्मिक नहीं थे और वर्ण व्यवस्था में आतंरिक सुधार को लेकर क्लिक करें गाँधी की आश्वस्ति से उन्हें उलझन होती थी. लेकिन वे नास्तिकतावाद के प्रचार को ज़रूरी नहीं मानते थे.
उनके लिए महत्वपूर्ण थी मानवीयता या मानवीय गरिमा का आदर. इस वजह से वे किसी के धार्मिक विश्वास पर विज्ञान के हथौड़े से चोट करने को राजी न थे.
नेहरू को एक ख़ून से लिथड़ा और नफ़रत से भरा हुआ नया राष्ट्र प्राप्त हुआ था. उसे मानवीय संवेदना से युक्त करने की चुनौती उनके सामने थी.
आशंकित मुस्लिम मन को आश्वस्ति देनी थी और क्रुद्ध हिन्दू मन को मुसलमान को अपना पड़ोसी मानने को तैयार करना था. सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे ‘स्वाभाविक’ हिन्दू काँग्रेसी मित्रों से संघर्ष के अलावा समाजवादी, साम्यवादी आलोचकों, स्वतन्त्र अर्थव्यस्था के हामी उदारवादियों से लेकर धुर दक्षिणपंथियों तक से निरंतर जूझने का ही सवाल न था, उनसे लगातार संवाद बनाए रखने की चुनौती भी थी.

मौजूदा पीढ़ी से दूर

संसदीय लोकतांत्रिक व्यवहार का संस्कार विकसित करना आसान न था. संवाद की संस्कृति आलोचना के प्रति सहिष्णुता के बगैर कैसे रची जा सकती थी? बिना अपने विचारों को छोड़े क्या दूसरे विचार को समझने का माद्दा हासिल करना मुमकिन था?

नेहरू
आज के दौर में कई लोग नेहरू को भारत में वंशवादी राजनीति के जनक के रूप में देखते हैं
नेहरू क्या थे? क्रांतिकारी, जो बाद में सत्तामोह में पथभ्रष्ट हो गए? क्या वे सुधारवादी थे? क्या वे अपनी अपर्याप्त भारतीयता के कारण अपराधबोध ग्रस्त आधुनिक थे? क्या वे यथास्थितिवादी थे? क्या वे धर्मनिरपेक्षतावादी थे?
नेहरू को हर पीढ़ी अपने ढंग से समझेगी अगर वह उन्हें पढ़े क्योंकि अपने विचारों के पर्याप्त साक्ष्य उन्होंने अपने लेखन में छोड़े हैं.
नेहरू का बड़ा योगदान सांस्थानिक प्रक्रियाओं को स्थापित करने का है. दूसरा, धर्म और जाति पर टिकी सामुदायिकता को नई कॉस्मोपॉलिटन साहचर्य की ओर उन्मुख करने का. तीसरे किसी आत्मग्रस्तता से मुक्त हो अन्य की अन्यता ही नहीं उसकी अनन्यता को आदर देना सीखने के लिए प्रवृत्त करने का.
नेहरू मात्र उपयोगितावादी नहीं थे. वे मूलतः सौंदर्यवादी थे. प्राकृतिक सौन्दर्य उन्हें खींचता था लेकिन वे मानवकृत सौंदर्य के खोजी और उसकी इस सौन्दर्यात्मक संभावना को उकसाने के उपाय में अधिक दिलचस्पी रखते थे.
आज की पीढ़ी से नेहरू बहुत दूर हो गए हैं. यह स्वाभाविक है. उनकी परीक्षा की कसौटी भी सख़्त होती जा रही है.
रिचर्ड एटनबरो जब गांधी पर फ़िल्म बनाने का विचार लेकर उनसे मिले तो नेहरू ने कहा, बापू को देवता की तरह नहीं, मनुष्य की तरह चित्रित करना. नेहरू को इस पर ऐतराज न होगा कि उनके इतिहास को मनुष्य के इतिहास की तरह ही परखा जाए. क्या हुआ कि आज वह प्रतिमा धूल धूसरित है, सुंदर तो वह फिर भी है!

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