Thursday 10 July 2014

UTTARAKHAND:दशकों बाद भी नहीं बदली गांवों की तकदीर , जवाब मांग रहे हैं बुनियादी सवाल , अनुभव खोल रहे हैं सिस्टम के दावों की पोल

UTTARAKHAND:दशकों बाद भी नहीं बदली गांवों की तकदीर , जवाब मांग रहे हैं बुनियादी सवाल , अनुभव खोल रहे हैं सिस्टम के दावों की पोल

10 JULY 2014

अस्कोट से आराकोट तक जवाब मांग रहे हैं बुनियादी सवाल
यात्रा के अनुभव खोल रहे हैं सिस्टम के दावों की पोल

देहरादून: सरकारों की निगाहों में सूबे की तस्वीर चाहे जितनी सुहावनी हो, मगर जमीनी हकीकत देखकर लौटे एक दल के अनुभव सिस्टम के दांवों की पोल खोल कर रहे हैं। यहां बात हो रही है पांगू-अस्कोट-आराकोट यात्रा से लौटे उस दल की, जिसने 45 दिवसीय यात्रा के दौरान सात जनपदों के 350 गांवों को नापने का प्रयास किया। यात्रा के जो अनुभव लेकर ये दल लौटा है उसका कुल जमा सार यही है कि दशकों बाद भी उत्तराखंड के गांवों की तकदीर नहीं बदल पाई है।
बुधवार को राजधानी लौटे यात्रा दल ने अपने अनुभव साझा किये। यात्रा दल के लीडर प्रो. शेखर पाठक ने बताया कि 45 दिन चली ये यात्रा 1150 किमी लंबी थी। ‘अपने गांव को तुम जानो, अपने लोगों को पहचानों’ के नारे के साथ 29 मई से नेपाल के सीमांत इलाके से यात्रा प्रारंभ हुई और आठ जुलाई को हिमाचल से सटे आराकोट में संपन्न हुई।
 जहां के तहां बुनियादी सवाल
यात्रा के दौरान अधिकांश गांवों में स्वास्थ्य और शिक्षा के हालात बद से बदतर हैं। ग्रामीणों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। कई गांवों में शिक्षक हैं, लेकिन भवनों की हालत जर्जर है। जहां भवन हैं वहां पर्याप्त संख्या में शिक्षक नहीं हैं। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बेहद खराब है। न डॉक्टर हैं न दवा है। बुनियादी सवाल जहां के तहां खड़े हैं।
संचार साधनों से महरूम
राज्य के अधिकांश पर्वतीय इलाके संचार साधनों से पूरी तरह महरूम हैं। संचार क्रांति दावे खोखले साबित हो रहे हैं। सीमांत क्षेत्र धारचूला, पांगू, व्यास, चौदास, खेला, पलपला में मोबाइल उपभेक्ता को नमस्ते नेपाल का संंदेश मिलता है। अंतर्राष्ट्रीय काल दरों का झंझट है। लोग नेपाल का सिम इस्तेमाल करते हैं। यही हाल उत्तरकाशी के सीमांत इलाकों का है।
हरे हैं आपदा के जख्म
सरकार चाहे जो दावे करे लेकिन सच्चाई यही है कि आपदा के जख्म अब भी हरे हैं। पुनर्वास का मुद्दा हाशिये पर है। पिथौरागढ़ के छोरीबगड़ व बंगापानी में बहे पुल नहीं बन सके। गांवों के 78 बच्चे एक साल से स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। धौली, गोरी, रामगंगा, पिंडर, कैल, नंदाकिनी, मंदाकिनी, हनुमानगाड़ जैसी नदियों में बहे पुलों का पुनर्निर्माण राज्य सरकार की सूची में शामिल ही नहीं है। खतरनाक नदियों में ट्राली लगाकर इतिश्री कर दी गई है। जल विद्युत परियोजनाओं के बैराज आपदा की तबाही को बढ़ाने में मददगार साबित हुए।
सरकार को आईना दिखा रहे हैं किसान
खेती की भरपूर संभावनाएं होने के बावजूद सरकार कोई मदद नहीं कर पाई है। लेकिन यमुना घाटी के कास्तकारोंने सहकारिता के जरिये शानदार और प्रेरणादायी नतीजे दिए हैं। मगर अभी भी कृषि क्षेत्र से जुड़ा बड़ा तबका संसाधनों के अभाव में अपनी उपज का सही दाम नहीं ले पा रहा है। सबसे बड़ी दिक्कत सेब उत्पादकों की है जिन्हें प्रसंस्करण के लिए 90 से 10 किमी का फासला तय करना पड़ता है। सरकार विपणन की कोई प्रभावी व्यवस्था भी नहीं बना पाई है।
स्कूलों में बढ़ी लड़कियों की संख्या
पिछले तमाम यात्राओं से जुदा एक सकारात्मक ट्रेंड ये देखने में आया है कि स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या में इजाफा हुआ है। एक दशक पहले तक लड़कियों को स्कूल भेजने की परंपरा नहीं थी। लेकिन अब गांवों में बदलाव दिख रहा है वे अपनी बेटियों को स्कूल पढ़ने भेज रहे हैं।

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