Monday 21 April 2014

RESEARCH ON UTTARAKHAND MIGRATION FROM MOUNTAIN POPULATION:--> चिंता-Migration from Uttarakhand(उत्तराखंड वाशिंदो का पहाड़ से पलायन):पलायन की पीड़ा,कई गांव अब उजाड़ और वीरान :::: दुरुह होती जिंदगी से आजिज स्थानीय वाशिंदे क्यों अपनी मिट्टी को छोड़कर पलायन को विवश हो रहे हैं :::: पलायन रोकने की बात करने वाले सियासतदां ही कर रहे पलायन :::: राज्य गठन के 13 वर्ष से अधिक समय गुजरने के बावजूद पलायन की समस्या जस की तस

RESEARCH ON UTTARAKHAND MIGRATION FROM MOUNTAIN POPULATION:

चिंता-Migration from Uttarakhand(उत्तराखंड वाशिंदो का पहाड़ से पलायन):
पलायन की पीड़ा,कई गांव अब उजाड़ और वीरान
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दुरुह होती जिंदगी से आजिज स्थानीय वाशिंदे क्यों अपनी मिट्टी को छोड़कर पलायन को विवश हो रहे हैं 
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पलायन रोकने की बात करने वाले सियासतदां ही कर रहे पलायन
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राज्य गठन के 13 वर्ष से अधिक समय गुजरने के बावजूद पलायन की समस्या जस की तस

 

पलायन से पहाड़ कमजोर

 

देहरादून: राज्य गठन के 13 वर्ष से अधिक समय गुजरने के बावजूद पलायन की समस्या जस की तस बनी हुई है। अलबत्ता पिछले 13 वर्षों में राज्य निर्माण से ज्यादा तेज गति से लोग पहाड़ से मैदानों की तरफ उतरे हैं। इसका असर पहाड़ के सामाजिक और आर्थिक ढ़ांचे के साथ ही राजनीतिक ढांचे पर भी पड़ा। पलायन से पहाड़ कमजोर हो गया। धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से पहाड़ को नुकसान उठाना पड़ा है। आलम यह है कि पलायन के कारण जनसंख्या घटने से पहाड़ की छह विधानसभा सीटें खत्म हो गई, जिससे राज्य की विधानसभा में पहाड़ की आवाज कमजोर हुई है।
रोजी-रोटी का संकट गहराने से राज्य के पहाड़ी जिलों में पलायन की रफ्तार बढ़ी है। पिछले कुछ वर्षों से हर साल पहाड़ को झकझोरने वाली आपदा ने भी लोगों को मैदानों की ओर उतरने के लिए मजबूर किया है। सीधे तौर पर इसका असर पहाड़ के राजनीतिक रसूख पर पड़ा है। पिछले विधानसभा चुनाव से पहले हुए परिसीमन के बाद राज्य के मैदानी क्षेत्रों में 36 और पहाड़ी क्षेत्रों में 34 सीटे हो गई। इससे पहले पहाड़ के खाते में 38 जबकि मैदान में 32 सीटें थी। मैदानी जिलों में राज्य गठन के पहले से उत्तरप्रदेश और देश के दूसरे मैदानी इलाकों से आए लोगों का बड़ा हिस्सा निवास करता है, जो कोर्ट के फैसले के बाद अब पक्की तरह से राज्य के मूल निवासी हो गए हैं।
जनसंख्या के आधार पर हुए परिसीमन ने पहाड़ को राजनीतिक रूप से कमजोर कर दिया। पहाड़ों में आबादी का घनत्व कम होने के कारण परिसीमन में कई सीटें खत्म हो गई। जबकि हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर में दो-दो और देहरादून व नैनीताल में एक-एक विधानसभा सीट बढ़ गई।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य गठन के बाद 11 वर्षों में कुल 1774 गांव वीरान हो गए। जहां पहाड़ की आबादी में गिरावट आई वहीं ऊधमसिंह नगर, देहरादून और हरिद्वार जैसे नगरीय क्षेत्रों की आबादी 33 फीसदी तक बढ़ गई। ऐसे में यदि पहाड़ी क्षेत्रों के परिसीमन का आधार जनसंख्या ही रखा जाए तो अगली बार इनकी संख्या घटकर आधे के करीब ही रह जाएगी। वहीं दूसरी तरफ इससे मैदानी क्षेत्रों में भी असंतुलन हो गया है। पहाड़ का प्रतिनिधित्व घटने से भ विष्य में मैदान का प्रभुत्व बढ़ेगा और इसका खामियाजा पहाड़ की जनता को भुगतना पडेगा।

पानी नहीं मिला तो पलायन कर गया एक गांव

 

देहरादून: लोक तंत्र के सबसे बड़े पर्व में जब सियासी दल गुलाबी वादों के साथ मतदाताओं से जिताने की अपील कर रहे हैं। आसमान से तारे तोड़ लाने सरीखे वादे कर रहे हैं। तब बिल्ला सरीखे गांव की व्यथा इन वादों की हकीकत बयान करती है। उत्तरकाशी जिले के नौगांव ब्लाक मुख्यालय का ये गांव कभी गुलजार था। लेकिन आज वहां मरघट का सा सन्नाटा है। ये गांव सिर्फ और सिर्फ पीने के पानी की कमी से खाली हो गया। पहाड़ में पानी, बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य सरीखी बुनियादी सुविधाओं का इतना भीषण संकट है कि लोगों का वहां जिंदगी काटना दूभ र हो चुका है। राज्य गठन के बाद जो उम्मीद जागी थी, वह भी टूट चुकी है। 13 साल गुजर जाने के बाद उत्तराखंड के बुनियादी सवाल जहां के तहां हैं। ऐसे में बिल्ला गांव के खाली हो जाने की कहानी चौंकाती नहीं है बल्कि सियासत के सफेद झूठ को बेपर्दा करती है।
उत्तरकाशी जिले के बिल्ला गांव की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। यमुना घाटी में नौगांव ब्लाक मुख्यालय से मात्र तीन किमी दूर स्थित है ये गांव। यमुनोत्री हाईवे के दोनों तरफ बसे इस गांव में करीब दो दशक पहले पलायन शुरू हुआ। इस गांव से पलायन की वजह ज्यादा स्पष्ट है। गांव का एक मात्र पेयजल स्रोत भूस्खलन की चपेट में आ जाने की वजह से ग्रामीणों को जब पीने का पानी नहीं मिल पाया तो पूरा गांव पलायन कर गया। गांव के लोगों ने बारह किमी दूर रवाड़ा छानियों और मंजियाली गांव में जाकर शरण ली। पहले इन छानियों में उनके जानवर रहते थे।
बिल्ला गांव के ठीक नीचे यमुना नदी बह रही है। प्यासे ग्रामीणों के लिए यमुना की कल-कल बहती जल धारा मृग तृष्णा बनकर रह गई और लोगों को पानी के अभाव में अपने मूल गांव को छोड़कर चले जाना पड़ा। जो अब इतनी बेहतर लोकेशन के बाद भी वीरान और बंजर पड़ा हुआ है। ग्रामीणों के गांव छोड़कर चले जाने के दसियों साल बाद अब बिल्ला गांव के लिए पेयजल योजना बनाई गई है। गांव के पूर्व प्रधान जगत सिंह राणा कहते हैं कि यदि व्यवस्था बेहतर होती है और पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित होती है, तो गांव के करीब तीस परिवार वापस बिल्ला गांव में  आकर बसने को तैयार हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों में सबसे कम पलायन यमुना घाटी में हुआ है। इस घाटी की उद्यमशीलता की वजह से पलायन पर ब्रेक लगा है। पड़ोसी हिमाचल प्रदेश की उद्यमशीलता की झलक पूरे उत्तराखंड में सिर्फ इसी घाटी में देखने को मिलती है। इसे रवांई घाटी भी कहा जाता है। रवांई की फल, सब्जियां दिल्ली की मदर डेरी के स्टालों पर बिकती हैं। इसके बावजूद घाटी में पानी के अभाव में एक पूरा गांव उजाड़ हो चुका है। यमुनोत्री हाईवे पर दोनों तरफ बसे इस बेहतर लोकेशन वाले गांव पर अब मसूरी तथा दिल्ली के होटेलियरों की नजर टिकी हुई है। उत्तराखंड में खासकर मानसून में हर साल आने वाली प्राकृतिक आपदा भी यहां के गांवों के लिए बड़ी समस्या लेकर आती हैं। इन आपदाओं से हर साल न जाने कितने गांव मानवविहीन होते जा रहे हैं। इस बार आई आपदा ने तो पहाड़ों के हजार से अधिक गांवों को अपनी चपेट में ले लिया है। इस आपदा ने पहाड़ों में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी है।

जिम्मेदार कंधों ने भी छोड़ा सब्र का दामन

 

पलायन रोकने की बात करने वाले सियासतदां ही कर रहे पलायन

देहरादून: पहाड़ से पलायन कोई नई बात नहीं है। बेहतर जिंदगी और रोजी रोटी की तलाश   में प्रत्येक वर्ष हजारों नौजवान राजधानी दून से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक की दूरी नाप रहे हैं। अपने घर-परिवार और अपनी मिट्टी से ये दूर तो हो जाते हैं पर बेहतर जिंदगी की तलाश इनके लिए सिर्फ मृग मरीचिका साबित होती है। यही कारण है कि प्रदेश में हर सियासी दल और सियासी नेता पलायन पर लम्बा चौड़ा भाषण देने का अवसर नहीं छोड़ते और हर हाल में इसे रोकने के दावे करते हैं। परंतु हकीकत यह है कि जो नेता पहाड़ से पलायन रोकने की बात करते हैं वे खुद पलायन कर रहे हैं। आज कोई भी सक्षम या अक्षम व्यक्ति पहाड़ पर यदि है तो सिर्फ अपनी किसी व्यक्तिगत मजबूरी के कारण। मौका मिलते ही वह पहाड़ को बाय-बाय कर डालते हैं।
प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत कुमाऊं क्षेत्र के अल्मोड़ा जनपद के रहने वाले हैं। उन्होंने अपनी शिक्षा लखनऊ में रहकर पूरी की। जब सियासत में आए तो अल्मोड़ा को ही अपना कर्मक्षेत्र बनाया। ये सीट परिसमीन की जद में आई तो नैनीताल के बजाय उन्होंने हरिद्वार में पलायन किया। 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने हरिद्वार यानी मैदानी इलाके से चुनावी समर में उतर गए। क्या हरिद्वार में कांग्रेसी नेताओं का इतना बड़ा अकाल पड़ गया था कि हरीश रावत को पहाड़ छोड़ना पड़ा। कांग्रेस के एक अन्य सूरमा हरक सिंह रावत की बात करते हैं। हरक सिंह रावत मूल रूप से रुद्रप्रयाग से ताल्लुक रखते हैं। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पूरा प्रयास किया कि किसी तरह डोईवाला (मैदानी क्षेत्र) से उन्हें टिकट मिल जाए। हालांकि वह अपने प्रयास में सफल नहीं रहे। अब हम भाजपा नेता रमेश पोखरियाल निशंक की बात करते हैं। निशंक गढवाल के थैलीसैण के रहने वाले हैं। थैलीसैंण जब रिजर्व सीट बना तो उनके पास श्रीनगर विधानसभा क्षेत्र (पहाड़ी इलाका) से चुनाव लड़ने का विकल्प रखा गया। परंतु उन्होंने श्रीनगर के बदले डोईवाला यानी मैदानी सीट को अपने लिए ज्यादा मुफीद माना। निशंक ही क्यों भाजपा के वरिष्ठ नेता बीसी खंडूड़ी को लें। पूर्व सीएम खंडूड़ी पौड़ी के रहने वाले हैं। पौड़ी से वे सियासत भी करते रहे हैं। परंतु गत विधानसभा चुनाव में पहाड़ की ज्यादा सुगम मानी जाने वाली कोटद्वार सीट ही पंसद आई और वहां से चुनाव लड़े। इस तरह के अनेकों उदाहरण है। कुछ नेता ऐसे भी हैं जिन्हें चुनाव क्षेत्र बदलने का मौका नहीं मिला। ऐसे नेता सिर्फ वोट मांगते समय पहाड़ों का भ्रमण करते हैं। स्थायी रूप से उन्होंने दून या नैनीताल को ही अपना आवास बना रखा है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि जब कोई शख्स मैदानी मतदाता के बलबूते चुनाव जीतकर विधानसभा या लोकसभा में जाएगा तो वह पहाड़ों के हित की बात दमदार तरीके से नहीं उठा पाएगा। पहाड़ के हित की बात तो ईमानदारी से वही कर सकता है, जो यहां के वाशिंदों के सुख दुख में बराबर का भागीदार हो।  एक साथ दो नाव की सवारी नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि प्रदेश गठन के 14 वर्ष बाद भी उत्तराखंड राज्य की अवधारणा के सवाल हाशिये पर हैं। 
 
 
 

पहाड़ से वोटों का पलायन

देहरादून: पहाड़ के बिना उत्तराखंड राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती। पहाड़ का मतलब ऊंची-ऊंची चोटियां ही नहीं है, पहाड़ का आशय उसमें बसा एक समाज है, गांव हैं, एक संस्कृति है, एक परंपरा है। इन सबके होने से ही पहाड़ है। मगर सियासत के सौदागरों ने पहाड़  को या तो बोझ की तरह देखा या फिर उसे सैरगाह माना। उन्हें इस बात की चिंता जरूर रही कि पर्यटक यहां आए और बर्फ के गोले बनाकर उसे हवा में उछाले पर उन्होंने इस बात की कतई चिंता नहीं की कि उन बर्फ के गोलों और उन्हें गेंद की तरह उछालते पर्यटकों की ओर से याचक भरी निगाह से निहारने वाले स्थानीय लोगों के हितवर्द्धन के क्या उपाय हो। उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि तिल-तिल कर दुरुह होती जिंदगी से आजिज स्थानीय वाशिंदे क्यों अपनी मिट्टी को छोड़कर पलायन को विवश हो रहे हैं। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि चीन की सरहद के वे गांव क्यों उजाड़ और वीरान हो रहे हैं जिसके बलबूते हम चैन की नींद सोते थे। उन्हें न तो उनकी पीड़ा दिखाई दी न ही उन्होंने पलायन की गंभीरता को समझने का प्रयास किया। उन्हें चिंता रही तो बस अपने वोट की। क्या फर्क पड़ता है कि पहाड़ से लोग कम हो गए और निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या कम हो गई। इसके बदले मैदान में तो निर्वाचन क्षेत्र और वोटर बढ़ गए।  पहाड़ ना सही, मैदान ही सही। उन्हें तो वोट चाहिए और वोट बैंक चाहिए। सियासत में भावना और जज्बात की बात कौन करता है। पेश है इन्हीं तथ्यों पर आधारित दैनिक उत्तराखंड की रिपोर्ट।
पहाड़ों से हो रहा पलायन सूबे की राजनीति पर भी असर डाल रहा है। जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से पिछले एक दशक के दौरान राज्य के दो प्रमुख जनपदों पौड़ी और अल्मोड़ा में जनसंख्या घट गई। ये तथ्य दोनों जनपदों से हो रहे पलायन की ओर इशारा करते हैं। यही नहीं सुख-सुविधाओं की खातिर लोग पर्वतीय जनपदों के भीतर भी पलायन कर रहे हैं। इन जिलों के कस्बों और शहरों में गांव से हो रहे पलायन का दबाव लगातार बढ़ रहा है। जाहिर है कि इस दबाव का सीधा असर सियासत का रुख बदलने वाले वोटों पर ही पड़ रहा है। पिछले पांच सालों के दौरान ही राज्य की पांचों लोक सभा सीटों में वोट प्रतिशत में इजाफा हुआ है, लेकिन कुछ सीटों में बढ़ोत्तरी की दर सामान्य से बहुत ज्यादा रही है। खासतौर पर टिहरी, हरिद्वार और नैनीताल ऊधम सिंह नगर लोक सभा क्षेत्रों की कुछ विधान सभाओं में अप्रत्याशित ढंग से मतदाता बढ़े हैं। इस मामले में हरिद्वार लोक सभा पहले स्थान पर है। इस संसदीय क्षेत्र में 20 फीसदी से अधिक दर से वोटों में इजाफा हुआ है। कुछ विधान सभा क्षेत्रों में तो रिकार्ड इजाफा हुआ है। मिसाल के लिए धर्मपुर विधान सभा क्षेत्र में 30.18 फीसदी, डोईवाला में 24.51 फीसदी और बीएचईएल में 23.95 फीसदी की दर से वोट बढ़े हैं। हरिद्वार में कुल आठ विधान सभाएं ऐसी हैं जिनमें 20 से 30 फीसदी की दर से नये मतदाता बने हैं। इसके विपरीत टिहरी लोक सभा क्षेत्र में वोटों की औसत वृद्धि दर करीब 11 फीसदी से कुछ कम है। चुनाव क्षेत्र में गंगोत्री, यमुनोत्री, प्रतापनगर, टिहरी और मसूरी में पांच से साढेÞ फीसदी के बीच वोटों में इजाफा हुआ है जबकि टिहरी  चुनाव क्षेत्र के मैदानी इलाकों में ये वोटों की बढ़ोत्तरी 11 से 22 फीसदी तक आंकी गई है। चुनाव क्षेत्र के सहसपुर में 21.91 और रायपुर में 19.68 फीसदी की दर से वोट बढ़े हैं। पिछले एक दशक में चुनाव क्षेत्र के इन दो इलाकों में आबादी का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। ये बढ़ोत्तरी भी उन्हीं मैदानी इलाकों में दर्ज हुई है जिनके विस्तार की संभावनाएं हैं। इसके विपरीत टिहरी सीट के ही राजपुर विधान सभा क्षेत्र में मतदाता बढ़ोत्तरी दर 1.1 फीसदी है, जो राज्य के 70 विधान सभाओं में से न्यूनतम है। इसकी प्रमुख वजह इस इलाके का सबसे ज्यादा पॉश होना है। इस इलाकों में विस्तार की संभावनाएं नगण्य हैं। पॉश एरिया होने के कारण यहां भूमि की लागत भी सर्वाधिक है। इस कारण यहां वृद्धि दर स्थिर रही है। इसी तरह नैनीताल-ऊधम सिंह नगर चुनाव क्षेत्र के मैदानी इलाके में नये मतदाताओं की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। इस चुनाव क्षेत्र में 19.75 फीसदी की दर से वोट बढ़े हैं। चुनाव क्षेत्र का 40 फीसदी इलाका पर्वतीय है। बाकी क्षेत्र मैदानी है। पिछले पांच सालों में नैनीताल की लालढुंगी विस क्षेत्र में 32.82 फीसदी की दर से वोट बढ़े, जो सूबे में सबसे अधिक है। यही नहीं नैनीताल लोस की रूद्रपुर, लालकुंआ, नानकमत्ता, काशीपुर, हल्द्वानी व किच्छा में 19 फीसदी से लेकर 31 फीसदी से ज्यादा वोट बढ़े हैं। इसी चुनाव क्षेत्र की नैनीताल, भीमताल, बाजपुर, गदरपुर, जसपुर, सितारगंज और खटीमा में 12 फीसदी से लेकर 18 फीसदी  तक नये वोट बढ़े हैं। इसके विपरीत गढ़वाल लोक सभा सीट में मतदाता वृद्धि दर 10.27 फीसदी ही रही। गढ़वाल की कर्णप्रयाग, केदारनाथ, नरेन्द्रनगर, यमकेश्वर, लैंसडाउन, थराली और चौबट्टाखाल, नरेन्द्रनगर विधान सभा क्षेत्रों में  साढ़े चार फीसदी से लेकर साढ़े आठ फीसदी की दर से ही वोट बढ़ सके। इसके विपरीत गढ़वाल लोस के शहरी एवं कस्बाई इलाकों में वोट प्रतिशत की वृद्धि दर 11 फीसदी से 22 फीसदी के बीच रही है। रामनगर में यह वृद्धि दर 21.97 फीसदी आंकी गई है।   इसके अलावा बदरीनाथ, रूद्रप्रयाग, पौड़ी, श्रीनगर व कोटद्वार में वोटों की संख्या में इजाफा हुआ। ये सभी इलाके आर्थिक एवं सुख-सुविधाओं के लिहाज से संपन्न हैं। रुझान तो यही बता रहे हैं कि बुनियादी सुविधाओं के अभाव में गांवों में बसी आबादी धीरे-धीरे सुख-सुविधा संपन्न इलाकों में बस रही है। ये ट्रेंड अल्मोड़ा लोक सभा क्षेत्र में भी दिखाई देता है। इस चुनाव क्षेत्र में पिछले एक दशक के दौरान आबादी का ग्राफ घटा है। इस पर्वतीय चुनाव क्षेत्र की बढ़ी आबादी या तो वहां के शहरी व कस्बों में शिफ्ट हो गई या फिर नैनीताल-ऊधम सिंह नगर के तराई क्षेत्रों में उतर आई जहां वोट प्रतिशत की दर औसत से कहीं ज्यादा पहुंच गई है। पिछले पांच सालों के दौरान अल्मोड़ा में वोट प्रतिशत की दर 10.81 फीसदी रही है। जनपद के पिथौरागढ़, सोमेश्वर, द्वारहाट, बागेश्वर, अल्मोड़ा, लोहाघाट, चंपावत इलाकों में 14 से 19.69 फीसदी की दर से वोट बढ़े हैं। लेकिन चुनाव क्षेत्र के कठिन और दुरूह माने जाने वाले डीडीहाट, कपकोट, सल्ट, जागेश्वर और गंगोलीहाट सरीखे इलाकों में बढ़ोत्तरी दर सात से 13.5 फीसदी के मध्य ही रही।  इस जनपद में कठिन हालातों में जीवन यापन कर रही आबादी चुनाव क्षेत्र के ही सुविधा-संपन्न इलाकों में पलायन कर गई।

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